सामायिक पाठ भाषा

प्रतिक्रमण कर्म

काल अनंत भ्रम्यो जग मैं सहियें दुःख भारी ।

जन्म मरण नित किये पाप को हैव अधिकारी ॥

कोटि भवान्तर माहिं मिलन दुर्लभ सामायिक ।

धन्य आज मैं भयो योग मिल्यो सुखदायक ॥१॥


हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जू मैं अब ।

ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति बिना लभ ॥

आप समीप हुजुर माहिं मैं खड़ो खड़ो सब ।

दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ॥२॥


क्रोध मान मद लोभ मोह मायावाशि प्रानी ।

दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहीं आनी ॥

बिना प्रयोजन एकेंद्रिय वि ति चउ पंचेन्द्रिय ।

आप प्रसादही मिटें दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥३॥


आपस में इक ठौर थापकरि जे दुःख दीने ।

पेलि दिये पग तले दाबि करि प्रान हरीने ॥

आप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक ।

अरज करू मै सुनो दोष मेटों दुखदायक ॥४॥


अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय ।

तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय ॥

मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि ।

यह पदिकोनो कियो आदि षट्कर्म माहिं विधि ॥५॥


प्रत्याख्यान कर्म

(इसके आदि एवं अंत मैं आलोचना पाठ बोलकर फिर

तीसरे सामायिक कर्म का पाठ करना चाहिए )


जो प्रमादवाशि होय विराधे जीव घनेरे ।

तिनको जो अपराध भयो मेरे अध ढेरे ॥

सो सब झूठो हाउ जगतपति के परसादै ।

जा प्रसादतै मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै॥६॥


मैं पापी निर्लज्ज दया करि हीन महाशठ ।

किये पाप अध ढेर पाप मति होय चित्त दुठ ॥

निंदुं हूँ मैं बार बार निज जिय को गरहूँ ।

सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूँ ॥७॥


दुर्लभ हैं नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी ।

सत संगति संजोग धर्म जिन श्रद्धा धारी ॥

जिन वचनामृत धार समावतै जिनवानी ।

तोहू जीव संधारे धिक धिक धिक हम जानी ॥८॥


इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब ।

अज्ञानी जिमि करै तिसि विविध हिंसक व्है अब ॥

गमना गमन करन्तो जीव विराधे भोले ।

ते सब दोष किये निंदु अब मन वाच तोले ॥९॥


आलोचन विधि थकी दोष लगे जू घनेरे ।

ते सब दोष विनाश होऊ तुम तैं जिन मेरे ॥

बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता ।

ईर्षादिक तें भये निंदि ये जे भयभीता ॥१०॥


सामायिक भाव कर्म

सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो हैं ।

सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो हैं ॥

आर्त्त रौद्र द्वय ध्यान छॉ‍‌‌ड़ करिहूँ सामायिक ।

संजम मो कब शुद्ध होय भाव बधायक ॥११॥


पृथ्वी जल अरु अग्नि वायु चउ काय वनस्पति ।

पंचहि थावर माहिं तथा त्रस जीव बसे जित ॥

बेइन्द्रिय तिय चउ पंचेन्द्रिय मांहि जीव सब ।

तिनतें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ॥१२॥


इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण ।

महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं समगण ॥

जामन मरण समान जानि हम समता कीनी ।

सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥१३॥


मेरो हैं इक आतम तामें ममत जु कीनो ।

और सबै सम भिन्न जानि ममता रस भीनो ॥

मात पिता सुत बन्धु मित्र तिय आदि सबै यह ।

मोतैं न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ॥१४॥


मैं अनादि जग जाल माहिं फंसि रूप न जाण्यो ।

एकेंद्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो ॥

ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी ।

भव-भव को अपराध छिमा किज्यो कर मरजी ॥१५॥


स्तवन कर्म


नमो ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को ।

संभव भव दुःख हरण करण अभिनंद शर्म को ॥

सुमति सुमति दातार तार भव सिन्धु पार कर ।

पद्‌मप्रभ पद्‌माभ भानि भवभीति प्रीतिधर ॥१६॥


श्री सुपार्श्व कृत पाश नाश भव जास शुद्ध कर ।

श्री चन्द्रप्रभ चन्द्र कांति सम देह कान्तिधर ॥

पुष्पदन्त दमि दोष कोष भवि पोष रोषहर ।

शीतल शीतल करण हरण भवताप दोष कर ॥१७॥


श्रेय रूप जिन श्रेय ध्येय नित सेय भव्य जन ।

वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भय हन ॥

विमल विमलमति दें अंतगत हैं अनंत जिन ।

धर्म शर्म शिवकरण शांतिजिन शांति विधायिन ॥१८॥


कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर ।

मल्लि मल्ल सम मोह मल्ल मारन प्रचार धर॥

मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर संधहि नमिजिन ।

नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माहिं ज्ञानधन॥१९॥


पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपल सम मोक्ष रमापति ।

वर्द्धमान जिन नमूं नमूं भवदुःख कर्मकृत ॥

या विधि मैं जिन संध रूप चौवीस संख्यधर ।

स्तवूं नमूं हूँ बार-बार बन्दुं शिव सुखकर॥२०॥


वंदना कर्म

बन्दुं मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति ।

वर्द्धमान अतिवीर बंदि हूँ मन वच तन कृत ॥

त्रिशाला तनुज महेश धीश विद्यापति बन्दुं ।

बंदों नित प्रति कनक रूप तनु पापनिकंदु ॥२१॥


सिद्धारथ नृपनन्द द्वंद्व, दुःख दोष मिटावन।

दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन ॥

कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद कारन।

वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दुःख टारन ॥२२॥


सप्त हस्त तनु तुंगभंगकृत जन्म मरण भय ।

बाल ब्रह्मा मय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय ॥

दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीव घन।

आप बसे शिवमाहिं ताहिं बन्दों मन वच तन ॥२३॥


जाके वंदनथ की दोषदुःख दूरहि जावै ।

जाके वंदनथ की मुक्ति सम्मुख आवै ॥

जाके वंदनथ की वंध होवे सुरगन के ।

ऐसे वीर जिनेश बंदि हूँ क्रम युग तिनके ॥२४॥


सामायिक षट कर्म माहिं वंदन यह पंचम ।

वंदो वीर जिनेन्द्र इंद्र शत वंध वंध मम ॥

जनम मरण भय हरो करो अब शांति शांतिमय ।

मैं अध कोष सुपोष दोष को दोष विनाशय ॥२५॥


कायोत्सर्ग कर्म

कायोत्सर्ग विधान करूँ अंतिम सुखदाई ।

कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई ॥

पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर में ।

जिनग्रह वंदन करूँ हरूं भवपाप तिमिर मैं ॥२६॥


शिरोनति मैं करूँ नमूं मस्तक कर धरिकै ।

आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरिकै ॥

तीन लोक जिन भवनमाहिं जिन हैं जूअकत्रिम ।

कृतिम हैं द्वय अर्द्धद्वीप माहीं बन्दों जिम ॥२७॥


आठ कोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणुं ।

च्यारी शतक पर असी एक जिनमंदिरजाणुं ॥

व्यंतर ज्योतिष माहिं संख्य रहिते जिन मंदिर ।

ते सब वंदन करूं हरहु मम पाप संघकर ॥२८॥


सामायिक सम नाहिं और कोउ वैर मिटायक ।

सामायिक सम नाहिं और कोउ मैत्री दायक ॥

श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक ।

यह आवशयक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥२९॥


ये भवि आतम-काज-मरण उद्धम के धारी ।

ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥

राग रोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब ।

बुध महाचन्द्र विलाय जाय तातैं किज्यो अब ॥३०॥