(१) मंगल-चरण-प्रभा
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
नत-मस्तक सुर भक्तों के, जिनवर-पद अनुरक्तों के ।
मुकुटों की झिलमिल मणियाँ, मणियों की हीरक लडिय़ाँ ॥
जगमग-जगमग दमक उठीं, प्रतिबिम्बित हो चमक उठीं ।
जिनके पावन चरणों से, चरण युगल की किरणों से ॥
युग-युग शरण प्रदाता हों, पतितों के भव त्राता हों ।
जो समुद्र में डूबे हैं, जन्म मरण से ऊबे हैं ॥
उनके सारे कष्ट हरें, पाप तिमिर को नष्ट करें ।
उनको सम्यक् नमन करूँ, भक्तामर आभरण करूँ ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२) तत्वज्ञों द्वारा स्तुत्य
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
जिनकी मंगल-गीता को, द्वादशांग नवनीता को ।
इन्द्रों ने गा पाया है, तीनों लोक रिझाया है ॥
तत्त्व बोध प्रतिभा द्वारा, बहा काव्य-रस की धारा ।
ललित, मनोहर छन्दों में, बड़े-बड़े अनुबंधों में ॥
भाव भरी स्तुतियों में, भक्ति भरी अँजुलियों में ।
उन्हीं प्रथम परमेश्वर का, तीर्थंकर वृषभेश्वर का ॥
अभिनंदन मैं करता हूँ, पद वन्दन मैं करता हूँ ।
यही अचंभा भारी है, सचमुच विस्मयकारी है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(३) मेरा साहस पूर्ण कदम
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
नाथ! आपका सिंहासन, सिंहासन के युगल-चरण ।
अर्चित हैं देवों द्वारा, चर्चित हैं इन्द्रों द्वारा ॥
मेरा काव्य असम्मत है, फिर भी मेरी हिम्मत है ।
निर्मल-जल के अन्दर जो, चंदा दिखता सुन्दर जो ॥
वह उसकी परछैया है, अथवा भूल-भुलैयाँ है ।
मु_ी मध्य जकडऩे की, हिम्मत उसे पकडऩे की ॥
बालक ही कर सकता है, अँजुल में भर सकता है ।
बुद्धिहीन कहलाऊँगा, लाज छोडक़र गाऊँगा ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४) अन्तरात्मा की आवाज
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
जिनवर के गुण कैसे हैं? धुली चाँदनी जैसे हैं ।
उन्हें न कोई गा सकता, पार न कोई पा सकता ॥
चाहे स्वयं वृहस्पति हों, प्रत्युत्पन्न महामति हों ।
वे भी आखिर हारे हैं, फिर तो हम बेचारे हैं ॥
प्रलयंकर तूफानी हो, गहरा-गहरा पानी हो ।
मगरमच्छ भी उछल-उछल, मचा रहे हों उथल-पुथल ॥
ऐसा सिन्धु भुजाओं से, हाथों की नौकाओं से ।
कौन भला तिर सकता है, दरिया में गिर सकता है ।।
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(५) गुणों का कीर्तन
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
शक्तिहीन होने पर भी, चतुराई खोने पर भी ।
भगवत् भक्ति उमड़ती है, स्तुति करनी पड़ती है ॥
जैसे कोई हिरनिया हो, छौना चुन-चुन मुनिया हो ।
उस पर शेर झपटता हो, नहीं हटाये हटता हो ॥
तो क्या हिरणी माँ मोरी? दिखलायेगी कमजोरी ।
नहीं सामना करती क्या? भला शेर से डरती क्या ।।
अपना वत्स बचाती है, तनिक नहीं सकुचाती है ।
बछड़ा उसको प्यारा है, जिसने उसे दुलारा है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥5॥
(६) उमड़ती हुई भक्ति प्रेरणा
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
हँसी उड़ाया जाऊँगा, मूर्ख बनाया जाऊँगा ।
यद्यपि मैं विद्वानों से, गानों की तुकतानों से ॥
तो भी भक्ति ढकेल रही, नाकों डाल नकेल रही ।
वही प्रेरणा करती है, बोल कंठ में भरती है ॥
ज्यों बसंत के आने पर, मादकता छा जाने पर ।
महक उठी है बगिया क्यों? चहक उठी कोयलिया क्यों ।।
क्योंकि कैरियाँ महक उठीं, अत: कोयलें चहक उठीं ।
गुण से आप महकते हैं, इससे भक्त बहकते हैं ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(७) पाप-संतति का समापन
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
जन्म-जन्म से जोड़ रखे, अपने सिर पर ओढ़ रखे ।
जीवों ने जो पाप यहाँ, दु:ख और सन्ताप यहाँ ॥
वे प्रभु के गुण गाने से, मंगल-गीत सुनाने से ।
छिन भर में उड़ जाते हैं, नहीं फटकने पाते हैं ॥
भौंरे सा जो काला है, जगत ढाँकने वाला है ।
ऐसा घोर अँधेरा हो, मिथ्यातम का डेरा हो ॥
सूरज-किरन निकलते ही, ज्ञान-दीप के जलते ही ।
सचमुच वह खो जाता है, छू मंतर हो जाता है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(८) स्तवन का मूल कारण
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
पानी की भी बूँद अगर, गिरे कमल के पत्तों पर ।
मोती तुल्य दमकती है, चमचम चारु चमकती है ॥
यही सोच प्रारंभ किया, मंगल गीतारंभ किया ।
सज्जन खुश हो जायेंगे, फूले नहीं समायेंगे ॥
वे तो इस पर रीझेंगे, श्रेय आपको ही देंगे ।
भले रहूँ अज्ञानी मैं, भोला-भाला प्राणी मैं ॥
भाव-प्रभाव तुम्हारा है, केवल चाव हमारा है ।
तुमने उसे संवारा है, सत्पुरुषों को प्यारा है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(९) गुण-गाथा का पुण्य प्रभाव
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
चूर-चूर हो जाते हैं, दोष दूर हो जाते हैं ।
जिनकी मंगल गीता से, पावन परम पुनीता से ॥
उसकी चर्चा नहीं यहाँ, उसकी अर्चा नहीं यहाँ ।
लेकिन पुण्य कथाएँ ही, धरती जगत व्यथाएँ ही ॥
पाप सभी धुल जाते हैं, ओलों से घुल जाते हैं ।
कोसों दूर दिवाकर है, फिर भी वे कमलाकर हैं ॥
जल में कमल खिलाते हैं, किरणों को पहुँचाते हैं ।
अर्चायें तो दूर रहें, चर्चायें भरपूर रहें ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१०) भक्तियोग से साम्ययोग
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
भूतनाथ जिन भगवन हे! त्रिभुवन के आभूषण हे ।।
गुणगाथा-गाथा गाने वाले, स्तुति अपनाने वाले ॥
तुम जैसे बन जाते हैं, सब विभूतियाँ पाते हैं ।
भौतिक और प्रभौतिक भी लौकिक और अलौकिक भी ॥
इसमें कुछ आश्चर्य नहीं, पा जाते ऐश्वर्य यहीं ।
जो अपने आधीनों को, दास दरिद्री दीनों को ॥
करे नहीं अपने जैसा, वह स्वामी स्वामी कैसा ।
कैसा उसका धन पैसा, अगर गरीब निराश्रयसा ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(११) हृदय की आँखों से
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
इकटक तुम्हें निहार रहीं, तुम पर सब कुछ वार रहीं ।
ये अँखियाँ अब जाएँ कहाँ, तुम जैसा अब पाएँ कहाँ ।।
दर्शनीय हो नाथ! तुम्हीं, वर्णनीय हो नाथ! तुम्हीं ।
जिसने निर्मल-नीर पिया, क्षीर सिन्धु का क्षीर पिया ॥
छिटकी धवल जुन्हैंया सा, मीठा मधुर मिठइया सा ।
वह क्या लवण समुद्रों का, खारा पानी क्षुद्रों का ।।
पीकर प्यास बुझायेगा, सागर तट पर जायेगा ।
कभी नहीं पी सकता है, प्यासा ही जी सकता है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१२) परमौदारिक दिव्य देह
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
वीतराग हर कण-कण है, चुम्बकीय आकर्षण है ।
कण-कण में सुन्दरता है, कण-कण मोहित करता है ॥
जिसने तुम्हें बनाया है, सुन्दर रूप सजाया है ।
वे सारे कण पृथ्वी पर, उतने ही थे धरती पर ॥
सो सब तुम में व्याप्त हुए, परमाणु समाप्त हुए ।
इसीलिए तो कोई नहीं, तुम सा सुन्दर दिखे कहीं ॥
तुम ही शान्त मनोहर हो, तीन लोक में सुन्दर हो ।
हे प्रशांत मुद्रा धारी, सुन्दरता की बलिहारी ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१३) वीतराग मुख मुद्रा
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
तीन लोक की उपमाएँ, जिसे देखकर शरमाएँ ।
देवों और नरेन्द्रों के, विद्याधर धरणेन्द्रों के ॥
नयनों को हरने वाला, मन मोहित करने वाला।
कहाँ आपका मुखड़ा है, कहाँ चाँद का टुकड़ा है?
कहाँ मलीन मयंक अरे, जिसको लगा कलंक अरे?
दिन में फीका पड़ जाता, लज्जा से गड़-गड़ जाता॥
कुम्हलाता अलवत्ता है, ज्यों पलाश का पत्ता है।
उपमा नहीं चन्द्रमा की, आनन से दी जा सकती॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(१४) आत्मीक गुणों की स्वच्छंदता
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
सकल कलाओं वाले हैं, चंदा से उजयाले हैं ।
गुण अनंत परमेश्वर के, उज्ज्वल ज्ञान कलाधर के ॥
भरते खूब छलाँगे हैं, तीनों लोक उलाँगे हैं ।
फैल रहे मनमाने हैं, कोई नहीं ठिकाने हैं ॥
जिसने पल्ला पकड़ लिया, दामन कसके जकड़ लिया ।
केवल एक जिनेश्वर का, तीन लोक ज्ञानेश्वर का ॥
जिन पर छत्रछाया है, वीतराग की माया है ।
रोक-टोक कुछ उन्हें नहीं, घूमें वे तो जहाँ कहीं ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१५) निर्विकार निष्कंप प्रभो
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
देवलोक की परियाँ भी, सुन्दरियाँ किन्नरियाँ भी ।
कामुक हाव-भाव लाई, रंचक नहीं डिगा पाईं ॥
इसमें अरे अचम्भा क्या, तिलोत्तमा या रंगा क्या ।
आँधी उठे कयामत की, शामत हो हर पर्वत की ॥
उड़ते और उखड़ते हों, बनते और बिगड़ते हों ।
पर सुमेरु की चोटी क्या, छोटी से भी छोटी क्या ।
डाँवाडोल हुआ करती, आँधी उसे छुआ करती ।
मेरू नहीं टस से मस हों, जिनवर नहीं काम वश हों ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१६) चिन्मय रत्न-दीप
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
बिना धुआँ बत्ती वाला, तेल नहीं जिसमें डाला ।
फिर भी जो आलोक भरे, जग-मग तीनों लोक करे ॥
ऐसे स्व-पर प्रकाशक हो, पाप-तिमिर के नाशक हो ।
ज्योतिर्मय हो जीवक हो, आप निराले दीपक हो ॥
तेज आँधियाँ चले भले, पर्वत-पर्वत हिलें भले ।
फिर भी बुझा नहीं पाया, अमरदीप हमने पाया ॥
जिसमें काम-कलंक नहीं, देह नेह का पंक नहीं ।
चिदानंद चिन्मयता है, निज में ही तन्मयता है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१७) कैवल्य ज्ञान मार्तण्ड
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
होते हैं जो अस्त नहीं, कभी राहु से ग्रस्त नहीं ।
एक साथ झलकाते हैं, तीनों लोक दिखाते हैं ॥
सूरज से भी बढक़र हैं, महिमाएँ बढ़-चढ़ कर हैं ।
नहीं बादलों में गहरा, छिपा रहे अपना चेहरा ॥
परम प्रतापी तेजस्वी, महा मनस्वी ओजस्वी ।
सचमुच आप मुनीश्वर हैं, सूरज से भी बढक़र हैं ॥
एक साथ झलकाते हैं, जग प्रत्यक्ष दिखाते हैं ।
मोह-राहु का ग्रहण नहीं, कर्मों का आवरण नहीं ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१८) सम्यक् ज्ञान कलाधर
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
ज्ञानोदय सर्वोदय है, नित्य सत्य अरुणोदय है ।
मोह तिमिर हट जाता है, मिथ्या-तम फट जाता है ॥
बादल नहीं छला करते, राहु नहीं निगला करते ।
ऐसा चाँद निराला है, मुखड़ा कमलों वाला है ॥
नव प्रकाश भर देता है, जग ज्योतित कर देता है ।
घटती उसकी कान्ति नहीं, हटती समरस शान्ति नहीं ॥
ऐसा चाँद निराला है, ज्ञान कलाओं वाला है ।
कमल स्वरूपी मुख मंडल, दीप्तिमान अत्यंत विमल ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(१९) निष्प्रयोज्य रवि-शशि-मंडल
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
दिन के लिए दिवाकर हैं, निशि के लिए निशाकर हैं ।
दोनों चमका करते हैं, अन्धकार भी हरते हैं ॥
पर मुख चन्द्र तुम्हारा जो, जीवों को है प्यारा जो ।
वह अज्ञान अँधेरे को, मिथ्यातम के घेरे को ॥
एक अकेला भगा रहा, सारा जग जगमगा रहा ।
सूर्य चन्द्र से मतलब क्या, रही जरूरत भी अब क्या ॥
जगत प्रकाशित करने की, व्यर्थ रोशनी भरने की ।
ज्यों फसलों के पकने पर, व्यर्थ बरसते हैं जलधर ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२०) त्रिमूर्ति और रत्नत्रय मूर्ति
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
जैसी केवल ज्योति-प्रभा, सम्यक् ज्ञान कला प्रतिभा ।
शोभा पाती प्रभुवर में, वैसी ब्रह्म हरिहर में ॥
स्वपर प्रकाशित दीप्ति नहीं, शुचि अखण्ड प्रज्ञप्ति नहीं।
जगमग मणि मुक्ताओं में, हीरों की कणिकाओं में॥
जैसा तेजो पुँज भरा, चकाचौंध मय सहज खरा।
वैसा तेज न काँचों में, किरणा कुलित किराचों में ॥
कभी प्राप्त हो सकता है, नहीं व्याप्त हो सकता है ।
सूरज से किरणों भरते, परावत्र्त उनको करते ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२१) वीतरागता और सरागता
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
मानूँ अपना बहुत भला, जो मैं इनको देख चला ।
ये कैसे हैं? रागी हैं, महादेव बड़भागी है ॥
क्योंकि इन्हें निरखने से, अच्छी तरह परखने से ।
बड़ा लाभ तो यही हुआ, मन संतोषित नहीं हुआ ॥
किन्तु आपके दर्शन से, और सूक्ष्म अवलोकन से ।
मुझ को यह नुकसान हुआ, स्थिर मेरा ध्यान हुआ ॥
तुम पर ऐसा टिका अरे, जन्म-जन्म को बिका अरे ।
यह चंचल मन अटक रहा, तव पद में सर पटक रहा ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२२) चन्द्रतम को नष्ट करता है
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
यहाँ सैकड़ों महिलाएँ, बनती रहती माताएँ ।
सौ-सौ बालक जनती हैं, पुन: प्रसूता बनती हैं ॥
किन्तु आपकी माता सी, भगवन् जन्म प्रदाता सी ।
नहीं दूसरी होती है, मंगल प्रसव संजोती है ॥
सभी दिशाएँ-विदिशाएँ, नभ का आँगन चमकाएँ ।
टिम-टिम नभ के तारों से, गोदी भरी हजारों से ॥
किन्तु एक तेजस्वी को, सूरज से ओजस्वी को ।
पूर्व दिशा ही जनती है, सच्ची माता बनती है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२३) सार्थक नाम समुच्चय
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
हे मुनियों के नाथ मुनी, तुम हो भजते परम गुनी ।
सूर्यकान्त तुम को कहते, तेजवन्त रवि से रहते ॥
अमल तुम्हीं कहलाते हो, तामस दूर भगाते हो ।
तुम्हीं परम पुरुषोत्तम हो, तुम्हीं मोक्ष के संगम हो ॥
तुमको जिसने पाया है, भलीभाँति अपनाया है ।
वही मौत को जीत चुका, भव-भय उसका बीत चुका ॥
वह मृत्युञ्जय कहलाता, जो तुमको सचमुच ध्याता ।
क्योंकि छोडक़र तुम्हें कहीं, मोक्ष-पंथ है और नहीं ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२४) निर्नाम नाम प्रसिद्धि
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
संतों ने इन नामों से, भजा विविध सिरनामों से ।
नाथ! आप ही अव्यय हो, शाश्वत् निर्मल अक्षय हो ॥
परे विकल्पों से रहते, संख्यातीत तुम्हें कहते ।
तुम्हीं प्रथम तीर्थंकर हो, आदि ब्रह्म, शिवशंकर हो ॥
ईश्वर तुम को संत कहें, नहीं तुम्हारा अंत कहे ।
कामदेव का नाश किया, सम्यक् ज्ञान प्रकाश किया ॥
योगीश्वर कहलाते हो, योग मार्ग बतलाते हो ।
तुम्हीं अनेक स्वरूपी हो, एकमेव चिद्रूपी हो ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२५) वास्तविक आप्तपना
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
बोधि लाभ के पाने से, केवलज्ञान जगाने से ।
बुद्ध आप ही सिद्ध हुए, शंकर परम प्रसिद्ध हुए ॥
क्योंकि तीन ही लोकों के, हरने वाले शोकों के ।
मंगल कत्र्ता शंकर हे, ऋषभदेव तीर्थंकर हे ।।
देवों द्वारा अर्चित हो, धीर नाम से चर्चित हो ।
मुक्ति-मार्ग बतलातेे हो, विधि-विधान जतलाते हो ॥
इससे तुम्हीं विधाता हो, सृष्टि नियम निर्माता हो ।
पुरुषोत्तम प्रत्यक्ष तुम्हीं, समवसरण अध्यक्ष तुम्हीं ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२६) द्रव्य-नमन और भाव-नमन
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
हे तीनों ही लोकों के, दु:खों-कष्टों-शोकों के ।
दूर करैया नमन-नमन, चूर करैया नमन-नमन ॥
अलंकार भू-मंडल के, आभूषण अवनी-तल के ।
शिरोमणी हे नमन-नमन, अग्रगणी हे नमन-नमन ।
तीन लोक के स्वामी हे, परमेश्वर अभिरामी हे ।
मन-वच-तन से नमन-नमन, निज चेतन से नमन-नमन ॥
सिन्धु सोखने वाले हे, भ्रमण रोकने वाले हे ।
भवदधि शोषक नमन-नमन, युग उद्घोषक नमन-नमन ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२७) दोषों की अभिव्यंजना
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
गुण सारे के सारे ही, आये शरण तुम्हारे ही ।
वहीं ठसाठस पिल बैठे, आप सहारे मिल बैठे ॥
दोष गर्व से इतराये, इधर-उधर सब छितराये ।
फूले नहीं समाते थे, विविध ठिकाने पाते थे ॥
खोटे - खोटे देवों के, छोटे-छोटे देवों के ।
इसीलिए मदहोशों ने, सपने में भी दोषों ने ॥
नहीं आपको झाँका भी, मूल्य आपका आँका भी ।
इसमें अचरज कौन अरे, गुण ही गुण से आप भरे ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२८) अशोक-प्रातिहार्य-रूप
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
तरु अशोक की छाँव तले, लगते हो प्रभु बहुत भले ।
रूप रश्मियाँ निखर रहीं, ऊपर-ऊपर बिखर रहीं ॥
परमौदारिक काया से, उच्च वृक्ष की छाया से ।
सूर्य बिम्ब हो निकल रहा, अँधियारे को निगल रहा ॥
फूट रहीं हैं उसमें से, छूट रहीं हैं उसमें से ।
किरणें ऊपर-ऊपर को, भेद रहीं है अम्बर को ॥
कजरारे बादल दल से, मानो गिरि नीलांचल से ।
सूर्य आरती करता है, भक्ति-भारती भरता है ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(२९) सिंहासन-प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
सिंहासन के मणियों की, रत्नजटिल किंकणियों की ।
रंग-बिरंगी किरणों से, किरणों की भी नोकों से ॥
चित्रित जो सिंहासन है, मणि-मंडित पीठासन है ।
उस पर कंचन काया है, महा पुण्य की माया है ॥
उदयाचल का उच्च शिखर, उसी शिखर की चोटी पर ।
मानो सूरज उदित हुआ, अवनी अंबर मुदित हुआ ॥
रवि की किरण लताओं का, कोटि-कोटि समुदायों का ।
मानो तना चँदोवा है, क्या ही बढिय़ा शोभा है ।।
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(३०) चल चाँवर प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
कुंद-कुंद मचकुंद धवल, सुरभित सुमनस वृन्द नवल।
शुभ्र चँवर के ढुरने से, नीचे ऊपर फिरने से॥
स्वर्ण कान्त आभा वाली, दिव्य-देह शोभा शाली।
इतनी मन भावन लगती, रम्य परम पावन लगती॥
मानो झरना झरता हो, जल प्रपात सा गिरता हो।
स्वर्णाचल के आँगन पर, धवल धार से छल-छल कर॥
उगते हुए कलाधर की, शुभ्र ज्योत्स्ना शशिधर की।
लगती जितनी निर्मल है, धारा उतनी उज्ज्वल है॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३१) छत्रत्रय-रत्नत्रय-प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
तीन छत्र अति सुन्दर हैं, विशद शीर्ष के ऊपर हैं।
चन्द्रकान्त से उज्ज्वल हैं, सौम्य, अचंचल, शीतल हैं॥
झिलमिल मयि झल्लरियों ने, मणियों की वल्लरियों ने।
शोभा अधिक बढ़ाई है, प्रभुता ही प्रकटाई है॥
मार्तण्ड का तेज प्रखर, रोक रहे अपने ऊपर।
मानो वे दरशाते हैं, छत्रत्रय बतलाते हैं॥
तीन लोक के स्वामी हो, भक्त नयन पथगामी हो।
प्रातिहार्य छत्रत्रय का, चमत्कार रत्नत्रय का॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३२) देव-दुन्दुभि प्रातिहार्य रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
बजा गगन में नक्कारा, दिग् दिगन्त गूँजा सारा।
मधुर-मधुर ऊँचे स्वर से, हुई घोषणा अम्बर से॥
सत्य-धर्म की जय जय जय, आत्म-धर्म की जय जय जय।
जय बोलो तीर्थंकर की, जय बोलो अभयंकर की॥
जन-जन का यह मेला है, तीन लोक तक फैला है।
हुए इके जीव सभी, हर्षोत्फुल्ल अतीव सभी॥
बजा जीत का डंका है, इसमें भी क्या शंका है।
जय के नारे लगा रही, विजय दुन्दुभि जगा रही॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३३) पुष्प-वृष्टि-प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
रिमझिम अमृत-वर्षण के, शीतल सुखद समीरण के।
मंद-मंद झोंके बहते, सुरभित गन्ध युक्त रहते॥
उन झोकों से गिरे हुए, डंठल नीचे किए हुए।
फूलों की लग रही झड़ी, उपमा ऐसी जान पड़ी॥
कल्पवृक्ष नन्दन वन के, अम्बर के चन्दन वन के।
पारिजात मन्दार सुमन, सन्तानक सुन्दर कुसुमन॥
ऊध्र्वमुखी होकर गिरते, मानो दिव्य-वचन खिरते।
पंक्तिबद्ध वृषभेश्वर के, तत्त्व निबद्ध जिनेश्वर के॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३४) आभा-मंडल प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
तेजो राशि महा-मंगल, चमक रहा आभा-मंडल।
रश्मि पुँज बिखराता है, ऐसी कान्ति दिखाता है॥
जैसे अनगिनती सूरज, एक साथ ले तेज-ध्वज।
पृष्ठ भूमि में उदय हुए, तमस्तोम सब विलय हुए॥
विद्यमान तीनों जग का, दीप्तिमान तीनों जग का।
वस्तु समूह लजाया है, प्रभा देख शरमाया है॥
फिर भी सौम्य चाँदनी सा, भा-मंडल हत रजनी सा।
शोभनीय है, शीतल है, आदर्शी दर्पण-तल है॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३५) दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य-रूपक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
दिव्य-ध्वनि ओंकार मयी, घन-गर्जन झंकार मयी।
स्वर्ग-मोक्ष मग दर्शाती, पथ प्रशस्त करती जाती॥
सम्यक् धर्म सुनाती हुई, त्रिभुवन पार लगाती हुई।
द्रव्य-गुणों-पर्यायों का, विशद वस्तु समुदायों का॥
भाव-अर्थ प्रकटाती है, परिवर्तित हो जाती है।
श्रोताओं की भाषा में, भावों भरी पिपासा में॥
सहज रूप परणित होती, दिव्यध्वनि नि:सृत होती।
यही विलक्षण अतिशय है, अनेकान्त नि:संशय है॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३६) चरण-कमल तल स्वर्ण-कमल
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
प्रभु के चरण युगल कैसे? नूतन स्वर्ण-कमल जैसे।
प्रभा पुँज बिखराते हैं, रश्मि जाल फैलाते हैं॥
नख-शिख प्रसरित उजयाला, चतुर्मुखी आभा वाला।
निकल रहा है चरणों से, दीप्ति नखों की किरणों से॥
के चरणाम्बुज जहाँ-जहाँ, पड़ते प्रभु के वहाँ-वहाँ।
कदम-कदम पर बिछते हैं, सुरगण जिनको रचते हैं॥
कमल पाँवड़े सोने के, सुन्दर और सलोने के।
कमल चरणों की चेरी है, विभूति प्रभुवर तेरी है॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३७) समवशरण का वैभव
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
जितना जैसा जो ऐश्वर्य, पाया जाता हे जिनवय्र्य।
वैभव धर्म सभाओं का, सर्वोदयी विधाओं का॥
धर्म-देशना वेला में, समवसरण के मेला में।
नहीं दूसरों का वैसा, पाया जाता तुम जैसा॥
जैसी दीप्ति दिवाकर में, दिपती घोर तिमिर-हर में।
वैसा कहाँ सितारों में, टिम-टिम ज्योति हजारों में॥
परम ज्योति परमेश्वर हे! केवलज्ञान दिवाकर हे!
समवसरण अधिनायक हे! आत्म तत्त्व के ज्ञायक हे!
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३८) क्रोध रूपी पशुता पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
भीम-काय ऐरावत सा, महा भयंकर पर्वत सा।
कोई गज उच्छृंखल हो, मतवाला हो, चंचल हो॥
गालों से मद झरने से, कलुषित उनके करने से।
भौंरे भी मँडराते हों, क्रोध अधिक भडक़ाते हों॥
ऐसा हाथी सन्मुख हो, बेवश, बेरस, बेेरुख हो।
किन्तु आपके शरणागत, याकि आपके कीत्र्तन रत॥
तनिक न उससे डरते हैं, वश में उसको करते हैं।
क्योंकि आप अभयंकर हैं, वीतराग तीर्थंकर हैं॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(३९) हिंसक बर्बरता पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
बर्बर सिंह हाथियों पर, झपटे अगर छलाँगें भर।
खूनी पंजे गाड़े हों, गज गल मस्तक फाड़े हों॥
टपक रहे हों गज-मुक्ता, उज्ज्वल और रुधिर सिक्ता।
वसुधा का शृंगार करे, मानो मुक्ता हार धरे॥
ऐसे सिंह के पंजों में, फँस कर क्रूर शिकंजों में।
कभी शिकार न हो सकता, उस पर वार न हो सकता॥
यदि वह भक्त तुम्हारा है, युग पद-शैल सहारा है।
चरणों की हो ओट जहाँ, उस पर कोई चोट कहाँ?
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(४०) अशान्ति की ज्वाला का शमन
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
आँधी प्रलयंकारी हो, दावानल यदि भारी हो।
धधका हो ज्वालाओं से, भभका तेज हवाओं से॥
चिनगारी चिनगारी हो, अँगारे भी जारी हों।
चारों ओर मचे हा! हा! मानो विश्व हुआ स्वाहा॥
लपटें ऐसी निकल रहीं, मानों जग को निगल रहीं।
किन्तु आपका जप-बल ही, नामों का मंत्रित जल ही॥
अग्नि प्रचण्ड बुझाता है, शान्ति-सुधा बरसाता है।
वीतराग में राग कहाँ? अरे राग की आग कहाँ?
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ॥
(४१) विषय भुजंगों के विष का उपचार
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ॥
ऊपर को फण किए हुए, लाल-लाल दग लिए हुए ।
क्रोध भरा मतवाला हो, कोयल जैसा काला हो ॥
सर्प भुजंग निराला हो, बढक़र डसने वाला हो ।
मगर आपके नामों की, स्तुति के आयामों की ॥
नाग दमनियाँ जो रखता, मन ही मन अमृत चखता ।
ऐसा भक्त उलाँघेगा, पाँव नाग पर रख देगा ॥
सर्प पटक फण रह जाये, भक्त मगर बढ़ता जाये ।
पथ उसका नि:शंक रहे, नहि अहि का आतंक रहे ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४२) कर्म शत्रुओं पर विजय
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
घोड़े हिन-हिन करते हों, गज चिंघाड़े भरते हों ।
रण का दृश्य भयंकर हो, शत्रु फौज बलवत्तर हो ॥
वह भी पीठ दिखायेगी, अपने मुँह की खायेगी ।
उदित सूर्य की किरणों से, उनकी पैनी नोकों से ॥
अन्धकार भिद जाता है, अंग-अंग छिद जाता है ।
त्यों ही तुमको भजने से, स्तुति विनय सिरजने से ॥
भक्त विजय पा जाता है, दुश्मन घबरा जाता है ।
सेना छिन्न-भिन्न होती, डर से खेद खिन्न होती ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४३) चेतन-कर्म युद्ध में आत्म-विजय
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
पैने बरछी, भालों से, तलवारों, करवालों से ।
कट-कट हस्ती मरते हों, नदी खून की भरते हों ॥
शूर वीर अतराते हों! आतुरता दिखलाते हों ।
शीघ्र पार हो जाने की, दुश्मन पर जय पाने की ॥
दुश्मन महा भयंकर हो, जिसे जीतना दुष्कर हो ।
सो भी जय पा जाता है, रण में नाम कमाता है ॥
जिसके चरण सरोजों की, मुंजल पद अंभोजों की ।
शीतल छत्रच्छाया हो, जिसने तुमको ध्याया हो ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४४) भव-समुद्र की भक्ति नौका
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
मगर मच्छ घडिय़ाल जहाँ, जीव-जन्तु विकराल जहाँ ।
लहरें अति उत्ताल जहाँ, बडवानल की ज्वाल जहाँ ॥
सुलगी महा समुन्दर में, जल के क्षुब्ध बवंडर में ।
डावाँडोल जहाज हुए, प्राणों के मुँहताज हुए ॥
जल-यात्रा करने वाले, महा मृत्यु वरने वाले ।
किन्तु आपको रटने से, भक्ति मार्ग पर डटने से ॥
सुखासीन बहते जाते, भय-विहीन बढ़ते जाते ।
अपने इष्ट ठिकानों पर, बैठ कुशल जल यानों पर ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४५) जन्म-जरा-मृत्यु रोग विनाशक
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
भीषण रोग जलोदर हो, बदसूरत लम्बोदर हो ।
टेढ़े मेढ़े अंग हुए, अवयव सारे भंग हुए ॥
चिन्ता जनक अवस्था हो, हालत बिल्कुल खस्ता हो ।
चारों ओर निराशा हो, गिनती की ही श्वासा हो ॥
अगर आपको वह भज ले, अमृतमयी चरण-रज ले ।
अपने अंग रमायेगा, तो सब रोग भगायेगा ॥
नव-जीवन पा जायेगा, सुन्दर तन पा जायेगा ।
मनहर, मंजु मनोजों सा, सुन्दर, नेघड़ सरोजों सा ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४६) कर्म बन्धन से मुक्ति
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
बड़ी-बड़ी जंजीरों को, लेकर कसा शरीरों को ।
जकड़ दिया है जोरों से, नख-शिख चारों ओरों से ॥
मोटी लौह शृंखलाएँ, छील रहीं हो जंघाएँ ।
इतना, दृढ़तम बंधन हो, पराधीन बंदीजन हो ॥
महामन्त्र यदि जपता है, तो स्वतन्त्र हो सकता है ।
लगातार यदि जाप करे, मुक्ति स्वयं ही आप वरे ॥
हो जाता स्वच्छंद अहो, तत्क्षण ही निर्बन्ध अहो ।
टूटे बन्धन कर्मों के, प्रकटे वैभव धर्मों के ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४७) सप्त भयों से मुक्ति
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
जो इस मंगल-गीता को, पावन-परम पुनीता को ।
भक्ति भाव से पढ़ते हैं, हृदय फ्रेम में जड़ते हैं ॥
वही विवेकी कहलाते, उनके ये भय भग जाते ।
मद उन्मत्त गजेन्द्रों का, बर्बर सिंह मृगेन्द्रों का ॥
धू धू करते ग्रामों का, सर्पों का, संग्रामों का ।
क्षोभित हुए समुद्रों का, रोग जलोदर रुद्रों का ॥
बन्धन का भी भय भगता, भक्त मोक्ष मग में लगता ।
दैहिक, दैविक विपदाएँ, क्षण में सभी पला जाएँ ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥
(४८) शुभाशीष एवं वरदान प्राप्ति
आदिनाथ के श्री चरणों में, सादर शीश झुकाता हूँ ।
भक्तामर के अभिनंदन की, मंगल-गीता गाता हूँ ॥
रंग-बिरंगे फूलों की, वर्ण वर्ण अनुकूलों की ।
यह भक्तामर माला है, गुण का धागा डाला है ॥
जो भी इसको पहिनेंगे, आत्म कंठ गत कर लेंगे ।
झमी हुई भक्तियों से, श्रद्धा भरी शक्तियों से ॥
वह लक्ष्मी को पायेंगे, निज सम्मान बढ़ायेंगे ।
‘मानतुङ्ग’ श्रीमान रहें, मुनिवर भक्त प्रधान रहें ॥
उनके ही आशीषों का, मंगलमयी मुनीशों का ।
भाव चुरा अनुवाद किया, मधुर-मधुर आस्वाद लिया ॥
‘मानतुङ्ग’ मुनिवर की कृति को, भक्ति-प्रसून चढ़ाता हूँ ।
उनके भावों की यह माला, भक्तों को पहनाता हूँ ॥