सिद्ध भक्ति

जिनके शुचि गुण परिचय पाकर वैसा बनने उद्यत हूँ।

विधि मल धो-धो, निजपन साधा वन्दू सिद्धों को नत हूँ।

निजी योग्यता बाह्य योग से कनक कनकपाषाण यथा।

शुचि गुणनाशक दोष नशन से आत्मसिद्धि वरदान तथा॥१॥


गुणाभाव यदि अभाव निज का सिद्धि रही, तप व्यर्थ रहे।

सुचिरबद्ध यह विधि फल-भोक्ता कर्म नष्ट कर अर्थ गहे।

ज्ञाता - द्रष्टा स्वतन बराबर फैलन - सिकुडऩशाली है।

धु्रवोत्पादव्यय गुणीजीव है यदि न, सिद्धि सो जाली है॥२॥


बाहर-भीतर यथाजात हो रत्नत्रय का खड्ग लिए।

घाति कर्म पर महाघात कर प्रकटे रवि से अंग लिए।

छत्र चँवर भासुर भामण्डल समवसरण पा आप्त हुए।

अनन्त दर्शन बोध वीर्य सुख समकित गुण चिर साथ हुए॥३॥


देखें जानें युगपत् सब कुछ सुचिर काल तक ध्वान्त हरें।

परमत-खण्डन जिनमत मण्डन करते जन-जन शान्त करें।

निज से निज में निज को निज ही बने स्वयंभू वरत रहे।

ज्योति पुंज की ज्ञानोदय यह जय जय जय जय करत रहे॥४॥


जड़ें उखाड़ीं अघातियों की सुदूर फैली चेतन में।

हुए सुशोभित सूक्ष्मादिक गुण अनन्त क्षायिक वे क्षण में।

और और विधि विभाव हटते-हटते अपने गुण उभरे।

ऊध्र्व स्वभावी अन्त समय में लोक शिखर पर जा ठहरे॥५॥


नूतन तन का कारण छूटा, मिला हुआ कुछ कम उससे।

सुन्दर प्रतिछवि लिए सिद्ध हैं अमूर्त दिखते ना दृग से।

भूख-प्यास से रोग-शोक से राग-रोष से मरणों से।

दूर दु:ख से शिव सुख कितना कौन कहे जड़ वचनों से॥६॥


घट-बढ़ ना हो विषय-रहित है प्रतिपक्षी से रहित रहा।

निरुपम शाश्वत सदा सदोदित सिद्धों का सुख अमित रहा।

निज कारण से प्राप्त अबाधित स्वयं सातिशय धार रहा।

परनिरपेक्षित परमोत्तम है अन्त - हीन वह सार रहा॥७॥


श्रम निद्रा जब अशुचि मिटी है शयन सुमन आदिक से क्या?

क्षुधा मिटी है तृषा मिटी है सरस अशन आदिक से क्या?

रोग शोक की पीर मिटी है औषध भी अब व्यर्थ रहा?

तिमिर मिटा सब हुआ प्रकाशित दीपक से क्या अर्थ रहा?॥८॥


संयम-यम-नियमों से नय से आत्म बोध से दर्शन से।

महायशस्वी महादेव हैं बने कठिन तपघर्षण से।

हुये हो रहे होंगे वन्दित सुधी जनों से सिद्ध महा।

उन सम बनने तीनों सन्ध्या उन्हें नमूं कर-बद्ध यहाँ॥९॥


दोहा

सिद्ध गुणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग।

आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु! तव संसर्ग॥ १०॥


समदर्शन से साम्य बोध से समचारित से युक्त हुए।

इष्ट धर्म से पुष्ट हुए जो अष्ट कर्म से मुक्त हुए।

सम्यक्त्वादिक अष्ट गुणों से मुख्य रूप से विलस रहे।

ऊध्र्वस्वभावी बने तुरत जा लोक शिखर पर निवस रहे॥११॥


विगत अनागत आगत के यूँ कुछ तो तप से सिद्ध हुए।

कुछ संयम से कुछ तो नय से कुछ चारित से सिद्ध हुए।

भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को।

पूजूँ वन्दू अर्चन करलूँ नमन करूँ सब सिद्धन को॥१२॥


कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।

वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥